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प्रियप्रवास



खग - समूह न था अब बोलता ।
विटप थे बहु नीरव हो गये ।
मधुर मंजुल मत्त अलाप के ।
अव न यत्र बने तरु - वृन्द थे ॥४०॥

विहग औ विटपी - कुल मौनता ।
प्रकट थी करती इस म्मर्म को ।
श्रवण को वह नीरव थे बने ।
करुण अंतिम - वादन वेणु का ॥४१॥

विहग - नीरवता - उपरांत ही ।
रुक गया स्वर श्रृंग विषाण का ।
कल-अलाप समापित हो गया ।
पर रही बजती वर-वंशिका ॥४२॥

विविध - म्मर्मभरी करुणामयी ।
ध्वनि वियोग-विराग-विवोधिनी ।
कुछ घड़ी रह व्याप्त दिगन्त मे ।
फिर समीरण मे वह भी मिली ॥४३।।

ब्रज-धरा - जन जीवन - यंत्रिका ।
विटप - वेलि-विनोदित-कारिणी ।
मुरलिका जन - मानस - मोहिनी ।
अहह नीरवता निहिता हुई ॥४४॥

प्रथम ही तम की करतूत से ।
छवि न लोचन थे अवलोकते ।
अव निनाद रुके कल - वेणु का ।
श्रवण पान न था करता सुधा ।।४५।।