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प्रथम सर्ग

इधर था इस भांति समा बंधा ।
उधर व्योम हुआ कुछ और ही ।
अब न था उसमें रवि रजता ।
किरण भी न सुशोभित थी कहीं ।।३४।।

अरुणिमा-जगती- ब्रज-रंजिनी ।
बहन थी करती अब लालिमा ।
मलिन थी नव-राय मयी-दिशा ।
अबनि थी तमसाकृत हो रही ।।३५।।

तिमिर की वह भृतन - व्यापिनी ।
तरुण-धार विकास - विरोधिनी ।
जन-समूह-विलोचन के लिए ।
बन गई प्रति-मुर्ति विगम की ।।३६।।

वृतिमती उतनी अब थी नहीं ।
नयन की अति द्विव्य वनीनिका ।
अब नहीं वह भी विलोकती ।
मधुमयी कवि श्रीधरश्याम की ।।३७।।

वह आभापुर्ण नभ की ‌।
सह खुशी न नभसन्न तारिका ।
वह विलाश विवद्धन के लिए ।
निखरते नभ नत्यन में सभी ।।३८।।