विचार-सूत्र
सहृदय वाचकवृन्द।
मै बहुत दिनो से हिन्दी भाषा में एक काव्य-ग्रन्थ लिखने के लिये लालायित था। आप कहेंगे कि जिस भाषा में ‘रामचरितमानस', 'सूरसागर', 'रामचन्द्रिका', 'पृथ्वीराज रासो', 'पद्मावत' इत्यादि जैसे बड़े अनूठे काव्य प्रस्तुत है, उसमे तुम्हारे जैसे अल्पज्ञ का काव्य लिखने के लिये समुत्सुक होना बातुलता नही तो क्या है? यह सत्य है, किन्तु मातृभाषा की सेवा करने का अधिकार सभी को तो है, बने या न बने, सेवा प्रणाली सुखद और हृदय-ग्राहिणी हो या न हो, परन्तु एक लालायित-चित्त अपनी प्रबल लालसा को पूरी किये बिना कैसे रहे? जिसके कान्त-पादांबुजो की निखिल-शास्त्रपारंगत पूज्यपाद महात्मा तुलसीदास, कवि-शिरोरत्न महात्मा सूरदास, जैसे महाजनो ने परम सुगंधित अथच उत्फुल्ल पाटल प्रसून अर्पण कर अचना की है—कविकुल-मण्डली-मण्डन केशव, देव, बिहारी, पद्माकर इत्यादि सहृदयो ने अपनी विकच-मल्लिका चढ़ा कर भक्ति-गद्गद-चित्त से आराधना की है—क्या उसकी मैं एक नितान्त साधारण पुष्प द्वारा पूजा नहीं कर सकता? यदि ‘स्वान्त खाय' मै ऐसा कर सकता हूँ तो अपनी टूटी-फूटी भाषा मे एक हिन्दी-काव्य ग्रन्थ भी लिख सकता हूँ, निदान इसी विचार के वशीभूत हो कर मैने 'प्रियप्रवास' नामक इस काव्य की रचना की है।