पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/४५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ४० )

‘इस सब जगड़बाल के प्रदर्शन से मेरा अभिप्राय यह नहीं है, कि हमारी भाषा के पद्य मे इस प्रकार शब्द व्यवहार करना चाहिये, किन्तु बुधजनो के विचार के लिये यह मेरी केवल एक प्रस्तावना मात्र है।"

ये दोनो वाक्य यह स्पष्ट बतला देते है कि प्रशंसित पाठक जी भी गद्य में इस प्रकार शब्दो को लिखना उचित नहीं समझते, पद्य में भी वह आवश्यकतानुसार ऐसा प्रयोग आपत्ति-रहित मानते है। पाठक जी के निम्न लिखित वाक्यांशो से भी यही बात सिद्ध होती है।

“आज कल मैं ऐसे स्थान पर हूँ कि उदाहरण नहीं दे सकता।",

“दूसरा वह जिसमे भाषा का यह गुण उपेक्षित सा देखने मे आता है", “मिश्रित वा खिचड़ी भाषा के पद्य मे यह योग्यता नहीं आ सकती", “ऐसी भाषा का प्रयोग उत्कृष्ट काव्य मे कदापि न करना चाहिये।

हि० सा० स० वि० प्रथम भाग पृष्ठ २९

“उसके मन में सर्वोचम है उसका ही प्रिय जन्मस्थान"

“उनके उर के मध्य मूर्खता का अंकुर भी बोता है"

——आन्तपथिक पृष्ठ ४,१३

अब मैं यह दिखलाना चाहता हूँ कि कुछ अकारान्त वर्ण जैसे बस, अब जतन इत्यादि के स, ब, न आदि, कुछ ऐसे शब्द-खण्ड के अन्त्याक्षर जिन पर बोलने में आघात सा पड़ता है जैसे गलबाही, मनभावना इत्यादि के गल और मन आदि, कुछ ऐसे वर्ण जो धातु-चिह्न के पहले रहते हैं जैसे करना, धरना, चलना इत्यादि के र, ल, आदि यदि आवश्यकतानुसार उच्चारण का ध्यान कर के पद्य में हलन्त कर लिये जावे तो उससे कुछ सुविधा होगी या नही ? और ऐसे प्रयोग का हिन्दी भाषा के पद्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? मै प्रशंसित पाठक जी के उक्त लेख में से ही एक पद्य यहाँ उठाता हूँ, आप इसे अवलोकन कीजियेः——