किन्तु इसी अर्थ के द्योतक निरखना और निहारना धातु के रूपो का व्यवहार विल्कुल नहीं होता। अतएव इन कतिपय क्रियाओ के रूपों का व्यवहार कोई कोई खड़ी बोली के पद्य में करना उत्तम नहीं समझते, किन्तु मेरा विचार है कि इन कतिपय क्रियाओ से भी यदि खडी बोली के पद्यो में सकीर्ण स्थलो पर काम लिया जाये तो उसके विस्तार और रचना मे सुविधा होगी। मैं ऊपर दिखला चुका हूँ कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है, अतएव इनको ब्रज भाषा की क्रिया समझ कर तज देना मुझे उचित नहीं जान पड़ता और इसी विचार से मैने अपनी कविता में देखने के अर्थ मे इन क्रियाओ के रूपो का व्यवहार भी उचित स्थान पर किया है। ऐसी ही कुछ और क्रियाये है, जो ब्रज भाषा की कविता में तो निस्सन्देह व्यवहृत होती है, परन्तु खड़ी बोली के गद्य में इनका व्यवहार सर्वथा नहीं होता, या यदि होता है तो बहुत न्यून । किन्तु मैने अपनी कविता मे इनको भी निस्संकोच स्थान दिया है। मेरा विचार है कि इन क्रियाओ के व्यवहार से खड़ी बोली का पद्य-भाण्डार सुसम्पन्न और ललित होने के स्थान पर क्षति-अस्त और असुन्दर न होगा। ये क्रियाये लसना, विलसना, रचना, विराजना, सोहना, बगरना, वलजोना, तजना इत्यादि है। आधुनिक खड़ी बोली के कविता-लेखकों में से यद्यपि कई एक अपर सज्जनो को भी इनको काम मे लाते देखा जाता है, किन्तु इन लोगो में अधिकांश वे सज्जन है, जो ब्रज भाषा से कुछ परिचित है। जिन्होने ब्रज भाषा का कोमलकान्त-बदन बिल्कुल नहीं देखा, उनको कवितामे इन क्रियाओ का प्रयोग कथञ्चित् होता है। मैं अपने कथन की पुष्टि गद्य के अवतरणो और आधुनिक वर्तमान कवियो की कविताओ का अपेक्षित अंश उठा कर, कर सकता हूँ——किन्तु ऐसा करने मे यह लेख बहुत विस्तृत हो जावेगा। ब्रज भाषा की क्रियाओ
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