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चेष्टा करने पर भी उनको यह शुद्ध और कोमल शब्द स्मरण नहीं आया, और इसीसे उन्होने एक ऐसे शब्द का प्रयोग किया जो च्युत-दोष से दूषित-है। किसी किसीने लिखा है कि उस काल में एक ऐसा व्याकरण प्रचलित था कि जिसके अनुसार ‘त्रयम्बकम्' शब्द भी अशुद्ध नहीं है, किन्तु यह कथन ऐसे लोगो का उस समय तक मान्य नहीं है, जब तक कि वह व्याकरण का नाम बतला कर उस सूत्र को भी न बतला दे कि जिसके द्वारा यह प्रयोग भी शुद्ध सिद्ध हो । इस विचार के लोग यह समझते है कि यदि कवि-कुलगुरु कालिदास की रचना में कोई अशुद्धि मान ली गई, तो फिर उनकी विद्वत्ता सर्वमान्य कैसे होगी। उनकी वह प्रतिष्ठा जो संसार की दृष्टि में एक चकितकर वस्तु है, कैसे रहेगी। अतएव येनकेन प्रकारेण वे लोग एक साधारण दोष को छिपाने के लिये एक बहुत बड़ा अपराध करते है, जिसको विबुध समाज नितान्त गर्हित समझता है।

इस विचार के लोग भाव-राज्य के उस मनोमुग्धकर-उपवन पर दृष्टि नहीं डालते, कि जिसके अंक में सदाशय और सद्विचार रूपी हृदय-विमोहक प्रफुल्ल-प्रसूनो के निकटवर्ती दो चार दोषकण्टको पर कोई दृष्टिपात ही नहीं करता । कवि किसी भाषा-हीन शब्द को यथाशक्ति तो रखता नहीं; जब रखता है तो विवश होकर रखता है। जिसकी रचना अधिकांश सुन्दर है, जिसके भाव लोक विमुग्धकर और उपकारक है, उसकी रचना में यदि कही कोई दोष आ जावे तो उस पर कौन सहृदय दृष्टिपात करता है, और यदि दृष्टिपात करता है तो वह सहृदय नही ।

“जड़ चेतन गुन दोष मय, विश्व कीन्ह करतार ।
सत हस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार ।।"

संसार में निर्दोष कौन वस्तु है ? सभी में कुछ न कुछ दोष है,