और विचारो को उतनी ही मात्रा वा उतने ही वर्गों में प्रकट करने का झगड़ा सामने आया, इस समय जो उलझन पड़ती है, उसको कवि-हृदय ही जानता है। यदि विचार नियत मात्रा अथवा वर्गों में स्पष्टतया न प्रकट हुआ, तो उसको यह दोष लगा कि उसका वाच्यार्थ साफ नहीं, यदि कोमल वर्णो मे वह स्फुरित न हुआ, तो कविता श्रुति-कटु हो गई। यदि उसमे कोई घृणाव्यञ्जक शब्द आ गया तो अश्लीलता की उपाधि शिर पर चढ़ी, यदि शब्द तोड़े-मरड़े गये तो च्युत-दोष ने गला दबाया, यदि उपयुक्त शब्द न मिले तो सौ सौ पलटा खाने पर भी एक चरण का निर्माण दुस्तर हो गया, यदि शब्द यथास्थान न पड़े तो दूरान्वय दोष ने ऑखे दिखायी। कहाँ तक कहे, ऐसी कितने बातें हैं, जो कविता रचने के समय कवि को उद्विग्न और चिन्तित करती हैं, और यही कारण है कि प्रसिद्ध ‘बहारदानिश' ग्रन्थ के रचयिता ने बड़ी सहृदयता से एक स्थान पर यह शेर लिखा है——
बराय पाकिये लफ़्जे शवे बरोज आरन्द ।
कि मुर्ग माही वाशन्द खुफता ऊवेदार ॥
इसका अर्थ यह है कि “कवि एक शब्द को परिष्कृत करने के लिये उस रात्रि को जाग कर दिन मे परिणत करता है, जिसको चिड़ियाँ और मछलियॉ तक निद्रा देवी के शान्ति-मय अङ्क में शिर रख कर व्यतीत करती है।" यदि कवि-कर्म इतना कठोर न होता, तो कवि-कुल-गुरु कालिदास जैसे असाधारण विद्वान् और विद्या-बद्धि निधान, ‘त्रयम्बकम् संयमिन ददर्श' इस श्लोक-खण्ड में ‘त्र्यम्बकम्' के स्थान पर ‘त्रयम्बकम्' न लिख जाते, जो कि ‘त्र्यम्बकम' का अशुद्ध रूप है । यदि इस त्रयम्बकम् के स्थान पर बहु त्रिलोचनम् लिखते तो कविता सर्वथा निर्दोष होती, किन्तु उन्होने ऐसा नहीं किया, जिससे यह सिद्ध होता है, कि कविता करने के समय बहुत