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सप्तदश सर्ग

हो के राधा विनत कहती मैं नहीं रो रही हूँ ।
आता मेरे हग युगल में नीर आनन्द का है ।
जो होता है पुलक कर के आप की चारु सेवा ।
हो जाता है प्रकटित वही वारि द्वारा हगो मे ॥४०॥

वे थी प्राय ब्रज - नृपति के पास उत्कण्ठ जाती ।
सेवाये थी पुलक करती क्लान्तियाँ थी मिटाती ।
बातो ही मे जग-विभव की तुच्छता थी दिखाती ।
जो वे होते विकल पढ़ के शास्त्र नाना सुनाती ॥४१।।

होती मारे मन यदि कही गोप की पंक्ति बैठी ।
किम्वा होता विकल उनको गोप कोई दिखाता ।
तो कार्यों मे सविधि उनको यत्नतः वे लगाती ।
औ ए बाते कथन करती भूरि गंभीरता से ।।४।२।

जी से जो आप सब करते प्यार प्राणेश को है ।
तो पा भू मे पुरुष - तन को, खिन्न हो के न बैठे ।
उद्योगी हो परम रुचि से कीजिये कार्य्य ऐसे ।
जो प्यारे है परम प्रिय के विश्व के प्रेमिको के ॥४३॥

जो वे होता मलिन लखती गोप के बालको को ।
देती पुष्पो रचित उनको मुग्धकारी - खिलौने ।
दे शिक्षाये विविध उनसे कृष्ण - लीला कराती ।
घटो बैठी परम - रुचि से देखती तद्गता हो ॥४४॥

पाई जाती दुखित जितनी अन्य गोपांगनाये ।
राधा द्वारा सुखित वह भी थी यथा रीति होती ।
गा के लीला स्व प्रियतम की वेणु, वीणा बजा के ।
प्यारी - बाते कथन कर के वे उन्हे बोध देती ॥४५।।