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इनका कितना आदर करते हैं। मैने देखा है कि आज कल के खडी बोली के रसिक ब्रजभाषा की कविता से उतना ही घबड़ाते हैं, जितना कि वह किसी अपरिचित किंवा अल्प परिचित भाषा की कविता से घबडा सकते है । कारण इसका क्या है ? कारण इसका यही है कि लिखने पढ़ने और बोलचाल की भाषा-से वह दूर पड़ गई है। इन दोहो का माधुर्य, लालित्य और कोमलता अथच कान्तता निर्विवाद है, किन्तु जब वह इनको समझते ही नहीं, यदि समझने की चेष्टा करते हैं तो मन को विशेष श्रम करना पड़ता है, फिर उनकी दृष्टि में इनकी कोमलता और कान्तता ही क्या ? किन्तु यदि इन दोहो के स्थान पर कोई संस्कृत गर्भित खड़ी बोली की कविता रख दीजिये, तो देखिये वह उसको पढ़ कर कितना मुग्ध होते है और कितना आनन्दानुभव करते हैं, अतएव उनको उसी में कोमलता और कान्तता दृष्टिगत होती है। और यही कारण है कि आजकल सस्कार और हृदय-ममता दोनो खड़ी बोली की ओर आकर्षित हो गई है, कि जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण खड़ी बोली की कविता का समधिक प्रचार है।

जिन प्राचीन विद्वान् सज्जनो का संस्कार ब्रजभाषा के माधुर्य और कान्तता के विषय मे दृढ हो गया है, और इस कारण उसकी ममता उनके हृदय मे वद्धमूल है, वे यदि कहे कि खड़ी बोली की कविता कर्कश होती है, तो इसमे आश्चर्य ही क्या । ऐसे ही जिन्होने ब्रज भाषा का अभूतपूर्व रस आस्वादन नही किया है, जो ब्रज भाषा की रचना मे दुर्बोधता उपलब्ध करते है, वे यदि खड़ी बोली का समादर और प्यार करे और उसे ही कान्त और कोमल समझे तो इसमे भी कोई आश्चर्य नहीं, सदा ऐसा ही होता आया है और आगे भी ऐसा ही होगा। अब मुझे केवल इतना ही कहना है कि समय का प्रवाह खड़ी बोली के अनुकूल है, इस समय खडी