पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३२८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५७
षोड़श सर्ग

सोये जागे, तम - पतित की दृष्टि मे ज्योति आवे ।
भूले 'आवे सु - पथ पर औ ज्ञान - उन्मेप होवे ।
ऐसे गाना कथन करना दिव्य - न्यारे गुणो का ।
है प्यारी भक्ति प्रभुवर की कीतनोपाधिवाली ॥११९।।

विद्वानो के स्व - गुरु - जन के देश के प्रेमिको के ।
ज्ञानी दानी सु • चरित गुणी सर्व - तेजस्वियों के ।
आत्मोत्सर्गी विवुध जन के देव' सद्विग्रहो के।
आगे होना नमित प्रभु की भक्ति है वन्दनाख्या ॥१२०।।

जो बाते हैं भव - हितकरी सर्व - भूतोपकारी ।
जो चेष्टाये मलिन गिरती जातियाँ है ऊठाती ।
हो सेवा मे निरत उनके अर्थ उत्सर्ग होना ।
विश्वात्मा - भक्ति भव - सुखदा दासता - संज्ञका है ।।१२।।

कगालो को विवश विधवा औ अनाथाश्रितो की ।
उद्विग्नो की सुरति करना औ उन्हे त्राण देना ।
सत्कार्यों का पर · हृदय की पीर का ध्यान आना ।
मानी जाती स्मरण - अभिधा भक्ति है भावुको मे ।।१२२।।
द्रुतविलम्बित छन्द विपद
सिन्धु पड़े नर - वृन्द के ।
दुख - निवारण औ हित के लिये ।
अरपना अपने तन प्राण को ।
प्रथित आत्म-निवेदन-भक्ति है ॥१२३।।
मन्दाक्रान्ता छन्द
संत्रस्तो को शरण मधुरा - शान्ति संतापितों को ।
निर्बोधो को सु - मति विविधा औपधी पीडितो को।
पानी देना तृषित - जन को अन्न भूखे नरो को ।
सर्वात्मा भक्ति अति रुचिरा अर्चना - सज्ञका है ।।१२४।।

१७