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प्रियप्रवास

शास्त्रो मे है लिखित प्रभु की भक्ति निष्काम जो है ।
सो, दिव्या है मनुज - तन की सर्व संसिद्धियो से ।
मै होती हूँ सुखित यह जो तत्वतः देखती हूँ ।
प्यारे की औ परम - प्रभु की भक्तियाँ है अभिन्ना ॥११३।।

द्रुतविलम्बित छन्द
जगत - जीवन प्राण स्वरूप का ।
निज पिता जननी गुरु आदि का ।
स्व - प्रिय का प्रिय साधन भक्ति है ।
वह अकाम महा - कमनीय है ॥११४।।

श्रवण, कीर्तन, वन्दन, दासता ।
स्मरण, आत्म - निवेदन, अर्चना ।
सहित सख्य तथा पद - सेवना ।
निगदिता नवधा प्रभु - भक्ति है ॥११५।।

वंशस्थ छन्द
बना किसी की यक मूर्ति कल्पिता ।
करे उसीकी पद- सेवनादि जो ।
न तुल्य होगा वह बुद्धि दृष्टि से ।
स्वयं उसीकी पद - अर्चनादि के ॥११६॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
विश्वात्मा जो परम प्रभु है रूप तो है उसीके ।
सारे प्राणी सरि गिरि लता वेलियाँ वृक्ष नाना ।
रक्षा पूजा उचित उनका यत्न सम्मान सेवा ।
भावोपेता परम प्रभु की भक्ति सर्वोत्तमा है ।।११७।।
 
जी से सारा कथन सुनना आर्च- उत्पीड़ितों का ।
रोगी प्राणी व्यथित जन का लोक - उन्नायको का ।
सच्छास्त्रो का श्रवण सुनना वाक्य सत्संगियो का ।
मानी जाती श्रवण - अभिधा - भक्ति है, सज्जनो मे ।।११८।।