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षोड़श सर्ग

शास्त्रो में है कथित प्रभु के शीश औ लोचनो की ।
संख्याये है अमित पग औ हस्त भी है अनेको ।
सो हो के भी रहित मुख से नेत्र नासादिको से ।
छूता, खाता, श्रवण करता, देखता, सूॅघता है ॥१०७।।

ज्ञाताओ ने विशद इसका मर्म यो है बताया ।
सारे प्राणी अखिल जग के मूर्तियाँ है उसीकी ।
होती ऑखे प्रभृति उनकी भूरि - संख्यावती है ।
सो विश्वात्मा अमित - नयनो आदि - वाला अत' है ।।१०८।।

निष्प्राणो की विफल वनती सर्व - गानेन्द्रियाँ है ।
है अन्या - शक्ति कृति करती वस्तुतः इन्दियों की ।
सा है नासा न हग रसना आदि ईशांश ही है ।
हो के नासादि रहित अतः सूंघता आदि सो है ॥१०९।।

ताराओ मे तिमिर - हर मे वह्नि - विद्युल्लता मे ।
नाना रत्नो, विविध मणियो मे विभा है उसीकी ।
पृथ्वी, पानी, पवन, नभ. मे, पादपो मे, खगो मे ।
मै पाती हूँ प्रथित - प्रभुता विश्व मे व्याप्त की ही ॥११०॥

प्यारी - सत्ता जगत - गत की नित्य लीला - मयी है ।
स्नेहोपेता परम - मधुरा पूतता मे पगी है ।
ऊँची -न्यारी- सरल - सरसा ज्ञान - गर्भा मनोज्ञा ।
पूज्या मान्या हृद्य - तल की रंजिनी उज्वला है ।।१११।।

मैने की है कथन जितनी शास्त्र - विज्ञात बाते ।
वे बाते है प्रकट करती ब्रह्म है विश्व - रूपी ।
व्यापी है विश्व प्रियतम मे विश्व मे प्राणप्यारा ।
यों ही मैने जगत - पति को श्याम में है विलोका ॥११२॥