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षोड़श सर्ग

कालिन्दी एक प्रियतम के गात की श्यामता ही ।
मेरे प्यासे हग - युगल के सामने है न लाती ।
प्यारी लीला सकल अपने कूल की मंजुता से ।
सद्भावो के सहित चित मे सर्वदा है लसाती ॥८३॥

फुली संध्या परम - प्रिय की कान्ति सी है दिखाती ।
मै पाती है रजनि - तन मे श्याम का रङ्ग छाया ।
ऊषा आती प्रति - दिवस है प्रीति से रंजिता हो ।
पाया जाता वर - वदन सा ओप आदित्य में है ।।८४।।

मै पाती हूँ अलक - सुषमा भृङ्ग की मालिका मे ।
है आँखो की सु - छवि मिलती खंजनो औ मृगो मे ।
दोनो बॉहे कलभ कर को देख है याद आती ।
पाई शोभा रुचिर शुक के ठोर में नासिका की ।।८५।।

है दॉतो की झलक मुझको दीखती दाडिमो मे ।
विम्बाओ मे वर अधर सी राजती लालिमा है ।
मै केलो मे जघन - युग की मंजुता देखती हूँ ।
गुल्फो की सी ललित सुषमा है गुलो मे दिखाती ।।८६।।

नेत्रोन्मादी बहु - मुदमयी - नीलिमा गात की सी ।
न्यारे नीले गगन - तल के अङ्क मे राजती है ।
भू मे शोभा, सुरस जल मे, वन्हि मे दिव्य - आभा ।
मेरे प्यारे - कुँवर वर सी प्रायशः है दिखाती ।।८७।।

सायं प्रात. सरस - स्वर से कूजते है पखेरू ।
प्यारी - प्यारी मधुर - ध्वनियाँ मत्त हो, है सुनाते ।
मै पाती हूँ मधुर ध्वनि मे कूजने मे खगो के। मीठी ‌।
ताने परम - प्रिय की मोहिनी - वंशिका की ।।८८।।