ममता हो सकती है, उसका स्वाभाविक संस्कार उसे निज पुत्र को आदर और सम्मान दृष्टि से देखने के लिये वाध्य कर सकता है, किन्तु इससे वह सुन्दर नहीं हो जावेगा, सुन्दर बालक को ही सुन्दर कहा जावेगा। इसी प्रकार किसी अकान्त और अकोमल पद को किसीका संस्कार और हृदय-भाव कान्त और कोमल नहीं बना सकता, क्योकि न्याय दृष्ठि कोमल और कांत को ही कोमल और कांत कह सकती है । जब सबको अपना ही अपत्य सुन्दर ज्ञात होता है तो इससे यह सिद्ध है कि उसको दूसरे के अपत्य के सौन्दर्य्य की अनुभूति नहीं होती, और जब अनुभूति नहीं होती, तो उसकी दृष्टि में उसका सौन्दर्य ही क्या ? इसी प्रकार जब किसी पदावली की कान्तता, मधुरता और कोमलता की अनुभूति ही नहीं होती, तो उसकी कान्तता, मधुरता, कोमलता ही क्या ? वास्तव में बात यह है कि ऐसे स्थानो पर संस्कार और हृदय ही प्रधान होता है।
पीयूपवर्षी कवि बिहारीलाल के निम्नलिखित दोहे कितने सुन्दर और मनोहर है——
बडे बडे छबि छाकु छकि छिगुनी छोर छुटैन ।
रहे सुरंग रंग रॅग वहीं, नहॅदी महॅदी नैन ।।
सतर भौह रुखे बचन,करति कठिन मन नीठि ।
कहा कहौ है जात हरि हेरि हॅसोही डीठि ।।
वतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय ।
सौह करें भौहनि हॅसै,देन कहै, नदि जाय ॥
यक भीगे चहले परे, बूड़े बहे हजार ।
किते न ओंगुन जग करे, नै चै चढती बार ॥
परन्तु आधुनिक पाठशालाओ के विद्यार्थियो और वर्तमान खडी बोली के अनुरागियो के सामने इनको रखिये, देखिये वह