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प्रियप्रवास

विनोद से पादप पै विराजना ।
विहंगिनी साथ विलास बोलना ।
बँधा हुआ संयम - सूत्र साथ था ।
कलोलकारी खग का कलोलना ।।२९।।

न प्रायशः आनन त्यागती रही ।
न थी बनाती ध्वनिता दिगन्त को ।
न वाग मे पा सकती विकाश थी ।
अ - कुंठिता हो कल - कंठ - काकली ॥३०॥

इसी तपोभूमि - समान वाटिका -
सु- अंक मे सुन्दर एक कुंज थी ।
समावृता श्यामल - पुष्प - संकुला ।
अनेकश- वेलि - लता - समूह से ॥३१॥

विराजती थी वृप - भानु - नन्दिनी ।
इसी बड़े नीरव शान्त · कुंज मे ।
अतः यही श्रीवलवीर - वन्धु ने ।
उन्हे विलोका अलि - वृन्द आवृता ॥३२॥

प्रशान्त, म्लाना, वृषभानु - कन्यका -
सु - मूर्ति देवी सम दिव्यतामयी ।
विलोक, हो भावित भक्ति-भाव से ।
विचित्र ऊधो - उर की दशा हुई ।।३३।।

अतीव थी कोमल - कान्ति नेत्र की ।
परन्तु थी शान्ति विषाद - अंकिता ।
विचित्र - मुद्रा मुख - पद्म की मिली ।
प्रफुल्लता - आकुलता - समन्विता ।।३४।।