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षाडश सर्ग

वसंत को पा यह शान्त वाटिका ।
स्वभावतः कान्त नितान्त थी हुई ।
परन्तु होती उसमे स - शान्ति थी ।
विकाश की कौशल - कारिणी-क्रिया ॥२३॥

शनैः शनै: पादप पुज कोपले ।
विकाश पा के करती प्रदान थी ।
स- आतुरी रक्तिमता - विभूति को ।
प्रमोदनीया - कमनीय - श्यामता ।।२४।।

अनेक आकार - प्रकार से मनो ।
बता रही थी यह गूढ़ - म्मर्म वे ।
नही रॅगेगा वह श्याम - रंग मे ।
न आदि मे जो अनुराग में रंगा ।।२५।।

प्रसून थे भाव - समेत फूलते ।
लुभावने श्यामल पत्र अंक मे ।
सुगंध को पूत बना दिगन्त मे ।
पसारती थी पवनातिपावनी ॥२६।।

प्रफुल्लता मे अति - गूढ़ - म्लानता ।
मिली हुई साथ पुनीत - शान्ति के ।
सु-व्यंजिता संयत भाव संग थी ।
प्रफुल्ल - पाथोज प्रसून - पुज मे ॥२७॥

स - शान्ति आते उड़ते निकुंज मे ।
स - शान्ति जाते ढिग थे प्रसून के ।
बने महा- नीरव, शान्त, संयमी ।
स - शान्ति पीते मधु को मिलिन्द थे ।।२८।।
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