शोआये आफ्तावे सुब् हमहगरतारे बिस्तर है ।।
लवे ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा जुॅबानी ।
कयामत कुस्तये लाले वुता का ख्वावे सगी है ।।
——गालिब
अब प्रश्न यह है कि वह कौन सी बात है कि जिसके कारण ब्रज भाषा का, कि जिसके माधुर्य पर अलीहजी ऐसा उदार हृदय पारसी कवि लोट पोट हो गया था, पीछे मुसलमान कवियो द्वारा तिरस्कार हुआ। क्यो उन्होने उसके कोमल कान्त पदोके स्थान पर फारसी और अरबी के श्रुति-कटु शब्दों का व्यवहार करना उचित समझा ? क्यो उन्होने ब्रज भाषा के सुविधापूर्वक उच्चारित वाले ग, ख, ज, फ, इत्यादि अक्षरो से निर्मित शब्दों के स्थान पर गैन, खे, जे, के, इत्यादि श्रुतिकठ-विदीर्णकारी अक्षरों से मिलित शब्दो का आदर किया ? इसका उत्तर इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि अरबी और फारसी भाषा में उसके अक्षरो और शब्दो में, उनके धार्मिक और जातिभाषामूलक सस्कार ही ने उन्हे उनसे आहत बनाया, इनमे जो उनकी हृदय-ममता है उसीने उन्हे इनको अगीकृत करने के लिये वाध्य किया।
जो कुछ अब तक कहा गया, उससे यह बात भली प्रकार सिद्ध हो गई कि किसी पदावली की कोमलता, कान्तता, मधुरता का बहुत कुछ सम्बन्ध, संस्कार और हृदय से है। इस अवसर पर यह कहा जा सकता है कि कोमलता, कान्तता इत्यादि का सम्बन्ध हृदय या संस्कार से नहीं है, वास्तव में उसका सम्बन्ध पदावली से ही है। हॉ, उसके आहत या अनाहत होने का सम्बन्ध निस्सन्देह संस्कार और हृदय से है। क्योकि यदि दो बालक ऐसे उपस्थित किये जावे कि जिनमे एक सुन्दर हो और दूसरा असुन्दर, तो निज अपत्य होने के कारण असुन्दर बालक मे पिता की हृदय-