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पञ्चदश सर्ग

होती विदूर कुछ व्यापकता दुखों की ।
पाती अलौकिक - पदार्थ वसुंधरा मे ।
होता स - शान्ति मम जीवन शेप भूत ।
लेती पदांक तुझको यदि अंक मे मै ॥१०७॥

हूँ मै अतीव - रुचि से तुझको उठाती ।
ग्यारे पदांक अब तू मम - अंक मे आ ।
हा! दैव क्या यह हुआ ? उह! क्या करूँ मै ।
कैसे हुआ प्रिय, पदांक विलोप भू मे ॥१०८॥

क्या है कलंकित बने युग - हस्त मेरे ।
क्या छू पदांक सकता इनको नहीं था ।
ए है अवश्य अति - निद्य महा - कलंकी ।
जो है प्रवचित हुए पद - अर्चना से ॥१०९॥

मै भी नितान्त जड़ हूँ यदि हाय ! मैने ।
अत्यन्त भ्रान्त बन के इतना न जाना ।
जो हो विदेह बन मध्य कहीं पड़े है ।
वे है किसी अपर के कव हाथ आते ॥११०॥

पादांक पूत अयि धूलि प्रशंसनीया ।
मै बाँधती सरुचि अंचल मे तुझे हूँ ।
होगी मुझे सतत तू बहु शान्ति-दाता ।
देगी प्रकाश तम मे फिरते हगो को ॥१११॥

मालिनी छन्द
कुछ कथन करूँगी मै स्वकीया व्यथाये ।
बन सदय सुनेगी क्या नहीं स्नेह द्वारा ।
प्रति- पल बहती ही क्या चली जायगी तू ।
कल - कल करती ऐ अर्कजा केलि शीला ॥११२॥