पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२९८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२७
पञ्चदश सर्ग

वहु बुध कहते है पुप्प के रूप द्वारा ।
अपहत चित होता है अनायास तेरा ।
कतिपय - मति-शाली हेतु आसक्तता का ।
अनुपम - मधु किम्वा गंध को है बताते ।।७१।।

यदि इन विषयों को रूप गंधादिको को ।
मधुकर हम तेरे मोह का हेतु माने ।
यह अवगत होना चाहिये भृड़्ग तो भी ।
दुख - प्रद तुझको, तो तीन ही इन्द्रियाँ हैं ॥७२॥

पर मुझ अवला की वेदना - दायिनी हा !
समधिक गुण - वाली पॉच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं ।
तदुपरि कितनी है मानवी - बंचनाये ।
विचलित - कर होगी क्यो न मेरी व्यथाये ॥७३॥

जब हम व्यथिता हैं ईद्दशी तो तुझे क्या ।
कुछ सदय न होना चाहिये श्याम - बन्धो ।
प्रिय निठुर हुए हैं दूर हो के हगो से ।
मत निठुर बने तू सामने लोचनों के ॥७४॥

नव - नव - कुसुमो के पास जा मुग्ध हो - हो ।
गुन - गुन करता है चाव से बैठता है ।
पर कुछ सुनता है त न मेरी व्यधाये ।
मधुकर इतना क्यो हो गया निर्दयी है ॥७५॥

कब टल सकता था श्याम के टालने से ।
मुख पर मॅटलाता था स्वयं मत्त हो के ।
यक दिन वह था औ एक है आज का भी ।
जय भ्रंमर न मरी और तू ताकता है ।।७६।।