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पञ्चदश सर्ग

मेरे जी की मृदुल - कलिका प्रेम के रंग राती ।
म्लाना होती अहह नित है अल्प भी जो न फूली ।
क्या देवेगा विकच इसको स्वीय जैसा बना तू ।
या हो शोकोपहत इसके तुल्य तू म्लान होगा ॥३५॥

वे है मेरे दिन अब कहाँ स्वीय उत्फुल्लता को ।
जो त मेरे हृदय - तल मे अल्प भी ला सकेगा ।
हाँ, थोड़ा भी यदि उर मुझे देख तेरा द्रवेगा ।
तो तू मेरे मलिन - मन की म्लानता पा सकेगा ।।३६।।

{{gap}हो जावेगी प्रथित-मृदुता पुष्प संदिग्ध तेरी ।
जो तू होगा व्यथित न किसी कष्ठिता की व्यथा से ।
कैसे तेरी सुमन - अभिधा सार्थ ऐ कुन्द होगी ।
जो होवेगा न अ-विकच तू म्लान होते चितो से ॥३७॥

सोने जैसा बरन जिसने गात का है बनाया ।
चित्तामोदी सुरभि जिसने केतकी दी तुझे है ।
यो कॉटो से भरित तुझको क्यो उसीने किया है ।
दी है धूली अलि अवलि को दृष्टि - विध्वंसिनी क्यो ॥३८॥

कालिन्दी सी कलित - सरिता दर्शनीया - निकुंजें ।
प्यारा-वृन्दी-विपिन विटपी- चारु न्यारी लतायें ।
शोभावाले - विहग जिसने है दिये हा । उसीने ।
कैसे माधो-रहित ब्रज की मेदनी को बनाया ॥३९।।

क्या थोड़ा भी सजनि! इसका मर्म तू पा सकी है ।
क्या धाता की प्रकट इससे मूढ़ता है न होती ।
कैसा होता जगत सुख की धाम औ मुग्धकारी ।
निर्माता की मिलित इसमें वामता जो न होती ॥४०॥