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पञ्चदश सर्ग

आ के तेरे निकट कुछ भी मोद पाती न मै हूँ ।
तेरी तीखी महक मुझको कष्टिता है बनाती ।
क्यो होती है सुरभि सुखदा माधवी मल्लिका की ।
क्यो तेरी है दुखद मुझको पुष्प बेला बता तू ॥२३॥

तेरी सारे सुमन - चय से श्वेतता उत्तमा है ।
अच्छा होता अधिक यदि तू सात्विकी वृत्ति पाता ।
हा! होती है प्रकृति रुचि मे अन्यथा कारिता भी ।
रा एरे निठुर नतुवा सॉवला रग होता ॥२४॥

नाना पीड़ा निठुर - कर से नित्य मैं पा रही हूँ ।
तेरे मे भी निठुरपन का भाव पूरा भरा है ।
हो-हो खिन्ना परम तुझसे मै अतः पछती हूँ ।
क्यो देते है निठुर जन यो दूसरो को व्यथाये ।।२५।।

हा! तू बोला न कुछ अब भी तू बड़ा निर्दयी है ।
मै कैसी हूँ विवश तुझसे जो वृथा बोलती हूँ ।
खोटे होते दिवस जब है भाग्य जो फूटता है ।
कोई साथी अवनि - तल मे है किसीका न होता ॥२६॥

जो प्रेमांगी सुमन बन के औ तदाकार हो के ।
पीड़ा मेरे हृदय -तल की पाटलो ने न जानी ।
तो तू हो के धवल - तन औ कुन्त - आकार-अगी ।
क्यो बोलेगा व्यथित चित की क्यो व्यथा जान लेगा ॥२७॥

चम्पा तू है विकसित मुखी रूप औ रंगवाली ।
पाई जाती सुरभि तुझमे एक सत्पुष्प - सी है ।
तो भी तेरे निकट न कभी भूल है भृङ्ग आता ।
क्या है ऐसी कसर तुझमे न्यूनता कौन सी है ।।२८।।