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प्रियप्रवास

मेरा जी तो व्यथित बन के बावला हो रहा है।
व्यापी सारे हृदय - तल मे वेदनाये सहस्रो।
मै पाती हूँ न कल दिन में, रात मे ऊबती हूँ।
भीगा जाता सर्व वदन है वारि - द्वारा हगो के ॥१७॥

क्या तू भी है रुदन करती यामिनी - मध्य यो ही।
जो पत्तो मे पतित इतनी वारि की दिया है।
पीड़ा द्वारा मथित - उर के प्रायशः काँपती है।
या तू होती. मृदु - पवन से मन्द आन्दोलिता है ॥१८॥

तेरे पत्ते अति - रुचिर है कोमला तू वड़ी है।
तेरा पौधा कुसुम - कुल मे है बड़ा ही अनूठा ।
मेरी आँखे ललक पड़ती है तुझे देखने को।
हा । क्यो तो भी व्यथित चित की तू नामोदिका है ।।१९।।

हा! बोली तू न कुछ मुझसे औ वताई न बाते।
मेरा जी है कथन करता तू हुई तद्गता है।
मेरे प्यारे - कुँवर तुझको चित्त से चाहते थे।
तेरी होगी न फिर दयिते । आज ऐसी दशा क्यो ॥२०॥

जूही बोली न कुछ जतला प्यार बोली चमेली ।
मैने देखा हग - युगल से रंग भी पाटलो का।
तू बोलेगा सदय बन के ईशी है न आशा।
पूरा कोरा निठुरपन की मूर्ति ऐ पुष्प बेला ॥२१॥

मै पूलूंगी तदपि तुझसे आज बातें स्वकीया।
तेरा होगा सुयश मुझसे सत्य जो तू कहेगा।
क्यो होते है पुरुप कितने, प्यार से शून्य कोरे।
क्यो होता है न उर उनका सिक्त स्नेहाम्बु द्वारा ॥२२॥