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चितवन चारु मार मद हरनी । भावत हृदय जात नहि बरनी ॥ कलकपोल श्रुति कुण्टल लोला । चिबुक अधर सुन्दर मृदु बोला ।। कुमुद-वधु कर निन्दक हॉसा । भृकुटी विकट मनोहर नासा ।। भाल विशाल तिलक झलकाही । कच विलोकि अलि अवलिलजाहीं।
रेखा रुचिर कम्बु कल ग्रीवा । जनु त्रिभुवन सोभा की सीवा ।।

——महात्मा तुलसीदास

हरि कर मडन सकल दुख खडन
मुकुर महि मडल को कहत अखण्ड मति ।
परम सुबास पुनि पीयुख निवास
परिपूरन प्रकास केसोदास भू अकाश गति ॥
बदन मदन कैसो श्री जू को सदन जहें,
सोदर सुभोदर दिनेस जू को मीत अति ।
सीता जू के मुख सुखमा की उपमा को
कहि कोमल न कमल अमल न रजनिपति ।।

——कविवर केशवदास

यदि अभिनिविष्ट चित्त से इस विषय मे विचार किया जावे तो स्पष्टतया यह बात हृदयङ्गम होगी कि संस्कृत-शब्दों के समादर और प्राकृत शब्दों में अप्रीति का मुख्य कारण बौद्ध-धर्म को पराजित कर पुन वैदिक धर्म का प्रतिष्ठा-लाभ करना है, जिसने संस्कृत की ममता पुन जागरित कर दी। जब वैदिक-धर्म के साथ-साथ | संस्कृत-भाषा का फिर आदर हुआ, तब यह असम्भव था कि प्राकृत शब्दों के स्थान पर फिर सस्कृत-शब्दो से अनुराग न प्रकट किया जाता। सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषा का त्याग असम्भव था, किन्तु यह सम्भव था कि उसमें उपयुक्त संस्कृत-शब्द ग्रहण कर लिये जावे । निदान उस काल और उसके परवर्ती काल के कवियो की रचनाये मैने जो ऊपर उद्धत की है उनमे आप ये ही बाते पावेगे।