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चतुर्दश सर्ग

प्यारी - बाते कथन करके बालिका - बालको की ।
माता की औ प्रिय - जनक की गोप - गोपांगना की ।
मैंने देखा अधिकतर है श्याम को मुग्ध होते ।
उच्छ्वासो से व्यथित - उर के नेत्र में वारि लाते ॥१७॥

सायं - प्रातः प्रति - पल - घटी है उन्हे याद आती ।
सोते मे भी ब्रज - अवनि का स्वप्न वे देखते हैं ।
कुंजों मे ही मन मधुप सा सर्वदा घूमता है ।
देखा जाता तन भर वहाँ मोहिनी - मूर्ति का है ॥१८॥

हो के भी वे व्रज - अवनि के चित्त से यो सनेही ।
क्यो आते हैं न प्रति - जन का प्रश्न होता यही है ।
कोई यो है कथन करता तीन ही कोस आना ।
क्यो है मेरे कुँवर - वर को कोटिश कोस होता ॥१९॥

दोनो आँखे सतत जिनकी दर्शनोत्कण्ठिता हो ।
जो वारो को कुँवर - पथ को देखते हैं बिताते ।
वे हो हो के विकल यदि हैं पूछते बात ऐसी ।
तो कोई है न अतिशयता औ न आश्चर्य ही है ॥२०॥

ऐ संतप्ता - विरह - विधुरा गोपियो किन्तु कोई ।
थोड़ा सा भी कुँवर - वर के मर्म का है न ज्ञाता ।
वे जी से हैं अवनिजन के प्राणियो. के हितैषी ।
प्राणो से है अधिक उनको विश्व का प्रेम प्यारा ॥२१॥

स्वार्थों को औ विपुल - सुख को तुच्छ देते बना है ।
जो आ जाता जगते-हित है सामने लोचनो के ।
हैं योगी सा दमन करते लोक-सेवा निमित्त ।
लिप्साओ से भरित उर की सैकड़ो लालसायें ॥२२॥
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