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त्रयोदश सर्ग

यदि अनशन होता अन्न औ द्रव्य देते ।
रुज - ग्रसित दिखाता औषधी तो खिलाते ।
यदि कलह वितण्डावाद की वृद्धि होती ।
वह मृदु - वचनो से तो उसे भी भगाते ॥११४॥

‘बहु नयन, दुखी हो वारि - धारा बहा के ।
पथ प्रियवर' का ही आज भी देखते है ।
पर सुधि उनकी भी हा! उन्होने नही ली ।
वह प्रथित दया का धाम भूला उन्हे क्यो ।।११५।।

पद - रज ब्रज - भू है चाहती उत्सुका हो ।
कर परस प्रलोभी वृन्द है पादपो का ।
अधिक बढ़ गई है लोक के लोचनो की ।
सरसिज मुख - शोभा देखने की पिपासा ॥११६॥

प्रतपित - रवि तीखी - रश्मियो से शिखी हो ।
प्रतिपल चित से ज्यो मेघ को चाहता है ।
ब्रज - जन बहु तापों से महा तप्त हो के ।
बन घन- तन-स्नेही है समुत्कण्ठ त्योही ॥११७।।

नव - जल - धर - धारा ज्यो समुत्सन्न होते ।
कतिपय तरु का है जीवनाधार होती ।
हितकर दुख - दग्धो का उसी भॉति होगा ।
नव - जलद शरीरी श्याम का सद्म आना ।।११८॥

द्रुतविलम्बित छन्द

कथन यो करते ब्रज की व्यथा ।
गगन - मण्डल लोहित हो गया ।
इस लिये वुध - ऊधव को लिये ।
सकल ग्वाल गये निज - गेह को ॥११९॥