हृदय कपट मुख ज्ञानी । झूठे कहा बिलोबसि पानी ॥
काया माजसि कौन गुना । जो घट भीतर है मलना ॥
लौकी अठ सठ तीरथ न्हाई । कौरापन तऊ न जाई ॥
कह कबीर बीचारी । भवसागर तार मुरारी ।।
——कबीर साहब
नागमती चितौर पथ हेरा । पिउ जो गये फिर कीन न फेरा ॥
सुआ काल ह्वै लैगा पीऊ । पीउ न जात जात बरु जीऊ ॥
भयो नरायन बावन करा । राज करत राजा बलि छरा ॥
करन बान लीनो कै छंदू । भरथहि भो झलमला अनदू ॥
लै कतहि भा गरुर अलोपी । विरह वियोग जियहि किमि गोपी ॥
का सिर बरनो दिपइ मयकू । चाँद कलकी वह निकलकू ॥
तेही लिलार पर तिलकु बईठा । दुइज पास मानो ध्रुव डीटा ॥
——मलिक महम्मद जायसी
अब आप उक्त तीनो महोदयो की रचनाओ को देखिये। इनमें संस्कृत शब्दो की कितनी प्रचुरता है—
जमुना जल बिहरति ब्रज-नारी ।
तट ठाढे देखत नँदनन्दन मधुर-मुरलि कर धारी ॥
मोर मुकुट श्रवनन मणि कुण्डल जलज-माल उर भ्राजत ।
सुन्दर सुभग श्याम तन नव घन बिच बग-पाँति विराजत ॥
उर बनमाल सुभग बहु भाँतिन सेत लाल सित पीत ।
मानो सुरसरि तट बैठे शुक बरन बरन तजि भीत ॥
पीतांबर कटि मैं छुद्रावलि बाजत परम रसाल ।
सूरदास मनो कनकभूमि ढिग बोलत रुचिर मराल ॥
——भक्तवर सूरदास
सहज मनोहर मूरति दोऊ । कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥
सरद चद निंदक मुख नीके । नीरज नयन भावते जीके ॥