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त्रयोदश सर्ग

अवश्य हिसा अति - निद्य - कर्म है ।
तथापि कर्तव्य - प्रधान है यही ।
न सद्म हो पूरित सर्प आदि से ।
वसुंधरा में पनपे न पातकी ।।७८।।

मनुष्य क्या एक पिपीलिका कभी ।
न वध्य है जो न अश्रेय हेतु हो ।
न पाप है किच पुनीत - कार्य है ।
पिशाच - कर्मी-नर की वध-क्रिया ।।७९।।

समाज - उत्पीड़क धर्म - विप्लवी ।
स्व - जाति का शत्रु दुरन्त - पातको ।
मनुष्य - द्रोही भव - प्राणि - पुंज का ।
न है क्षमा - योग्य वरंच वध्य है ।।८०॥

क्षमा नहीं है खल के लिये भली ।
समाज - उत्सादक दण्ड योग्य है ।
कु - कर्म - कारी नर का उबारना ।
सु - कर्मियो को करता विपन्न है ।।८१।।

अतः अरे पामर सावधान हो ।
समीप तेरे अब काल आ गया ।
न पा सकेगा खल आज त्राण तू ।
सम्हाल तेरा वध वांछनीय है ।।८२॥

स - दर्प बातें सुन श्याम - मृत्ति की ।
हुआ महा क्रोधित व्योम विक्रमी ।
उठा स्वकीया - गुरु - दीर्घ यष्टि को ।
तुरन्त मारा उसने ब्रजेन्द्र को ।।८३।।