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त्रयोदश सर्ग

विलोक ऐसी बलवीर - वीरता ।
अशंकता साहस कार्य - दक्षता ।
समस्त - आभीर विमुग्ध हो गये ।
चमत्कृता हो जन - मण्डली उठी ।।६६।।

वनस्थली कण्टक रूप अन्य भी ।
कई बड़े - क्रूर बलिष्ठ - जन्तु थे ।
हटा उन्हे भी निज कौशलादि से ।
किया उन्होने उसको अकण्टका ॥६७॥

बड़ा- वली - वालिश व्योम नाम का ।
वनस्थली मे पशु - पाल एक था ।
अपार होता उसको विनोद था ।
बना महा - पीड़ित प्राणि - पुंज को ।।६८।।

प्रवंचना से उसकी प्रवंचिता ।
विशेष होती ब्रज की वसुंधरा ।
अनेक - उत्पात पवित्र - भूमि मे ।
सदा मचाता यह दुष्ट - व्यक्ति था ॥६९।।

कभी चुराता वृष - वत्स - धेनु था ।
कभी उन्हें था जल - बीच बोरता ।
प्रहार - द्वारा गुरु - यष्टि के कभी ।
उन्हे बनाता वह अंग - हीन था ॥७०।।

दुरात्मता थी उसकी भयंकरी ।
न खेद होता उसको कदापि था ।
निरीह गो - वत्स - समूह को जला ।
वृथा लगा पावक कुंज - पुंज में ।।७१।।