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प्रियप्रवास

अपूर्व - आदर्श दिखा नरत्त्व का ।
प्रदान की है पशु को मनुष्यता ।
सिखा उन्होने चित की समुच्चता ।
बना दिया मानव गोप - वृन्द को ॥२४॥

मुकुन्द थे पुत्र ब्रजेश - नन्द के ।
गऊ चराना उनका न कार्य था ।
रहे जहाँ सेवक सैकड़ो वहाँ ।
उन्हे भला कानन कौन भेजता ।।२५।।

परन्तु आते वन मे स - मोद वे ।
अनन्त - ज्ञानार्जन के लिये स्वयं ।
तथा उन्हें वांछित थी नितान्त ही ।
वनान्त मे हिस्रक - जन्तु - हीनता ।।२६।‌।

मुकुन्द आते जब थे अरण्य मे ।
प्रफुल्ल हो तो करते विहार थे ।
विलोकते थे सु - विलास वारि का ।
कलिन्दजा के कल कूल पै खड़े ॥२७॥

स - मोद बैठे गिरि - सानु पै कभी ।
अनेक थे सुन्दर - दृश्य देखते ।
बने महा - उत्सुक वे कभी छटा ।
विलोकते निर्भर - नीर की रहे ।।२८।।

सु - वीथिका मे कल - कुंज - पुंज में ।
शनैः शनैः वे स-विनोद घूमते ।
विमुग्ध हो हो कर थे विलोकते ।
लता - सपुष्पा मृदु - मन्द - दलिता ॥२९॥