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क्यो हो गया कि उसके ज्ञाताओ की संख्या उँगलियो पर गिनी जाने योग्य हो गई ? मधुरता, कोमलता, कान्तता किसको प्यारी नहीं है, सुविधा का आदर कौन नहीं करता, फिर सुविधामूलक मधुर कोमलकान्त भाषा का व्यवहार क्यो कवियो की रचनाओ आदि में दिन दिन अल्प होता गया ? कहा जावेगा कि प्राकृत भाषा की प्रिय-द्वहिता परम सरला और मनोहरा हिन्दी भाषा का प्रचार ही इस ह्रास का कारण है । परन्तु प्रश्न तो यह है कि यह प्रिय-दुहिता अपनी जन्मदायिनी से इतनी विरक्त क्यो हो गई कि दिन-दिन उसके शब्दो को त्याग कर संस्कृत शब्दों को ग्रहण करने लगी; काल पाकर क्यो थोड़े प्राकृत शब्द भी अपने मुख्य रूप में उसमे शेष न रहे, और उस संस्कृत के अनेक शब्द उसमे क्यो भर गये जो कि परुप कही जाती है।

उस काल के ग्रन्थो में केवल एक ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो, अब हम लोगो को प्राप्त है, अतएव मैं उसी ग्रन्थ के कुछ पद्यो को यहाँ उद्धृत करता हूँ। आप लोग इनको पढकर देखिये कि किस प्रकार उस समय प्राकृत भाषा के शब्दो का व्यवहार न्यून और कैसे संस्कृत के शब्दो का समादर अधिक हो चला था।आज कल प्राकृत भाषा हम लोगो की इतनी अपरिचिता है कि उसके बहुत से शब्दों का व्यवहार करने के कारण ही, हम लोग अनुराग के साथ ‘पृथ्वीराज रासो' को नही पढ़ सकते और उससे घबड़ाते है।

श्लोक
आसामही कब्बी नवनव कित्तिय सग्रह ग्रंथ ।
सागरसरिसतरगी वोहय्थय उक्तियं चलय ॥
दोहा
काव्य समुद कविचन्द कृत युगति समापन ज्ञान ।
राजनीति वोहिथ सुफल पार उतारन यान ।।