१——एक संस्कार जो सहस्रो वर्ष तक भारतवर्ष में फैला था, और जो प्राकृत को संस्कृत की जननी और उससे उत्तम बतलाता था।
२——प्राकृत का सर्वसाधारण की भाषा अथवा अधिकांश उसका निकटवर्ती होना।
३——बोलचाल मे अधिक आने के कारण प्राकृत का संस्कृत की अपेक्षा वोधगम्य होना।
और इसी लिये मेरा यह विचार है कि पदावली की कान्तता, कोमलता और मधुरता केवल पदावली में ही सन्निहित नहीं है। वरन् उसका बहुत कुछ सम्बन्ध सस्कार और हृदय से भी है। सम्भव है कि मेरा यह विचार इन कतिपय पंक्तियो द्वारा स्पष्टतया प्रतिपादित न हुआ हो। इसके अतिरिक्त यह कदापि सर्वसम्मत न होगा कि प्राकृत से संस्कृत परुष नहीं है, अतएव मैं एक दूसरे पथ से अपने इस विचार को पुष्ट करने की चेष्टा करता हूँ।
जिस प्राकृत भाषा के विषय में यह सिद्धान्त हो गया था कि——
सा मागधी मूलभाषा नरेय आदि कप्पिक ।
ब्राह्मणमसूटल्लाप समबुद्धच्चापि भाषरे ।।
पतिसम्विध अत्तय, नामक पाली ग्रन्थ में जिस भाषा के विषय में लिखा गया है कि “यह भाषा देवलोक, नरलोक प्रेतलोक और पशु जाति मे सर्वत्र ही प्रचलित है, किरात, अन्धक,योणक, दामिल प्रभृति भाषा परिवर्तनशील है । किन्तु मागधी, आर्य और ब्राह्मणगण की भाषा है, इसलिये अपरिवर्तनीय और चिरकाल से समानरूपेण व्यवहृत है। मागधी भाषा को सुगम समझ कर बुद्धदेव ने स्वयं पिटकनिचय को सर्वसाधारण के बोध-सौकर्य के लिये इस भाषा में व्यक्त किया था।" जिस प्राकृत को राजशेखर जैसा असाधारण विद्वान् संस्कृत से कोमल और मधुर होने का प्रशसापत्र देता है, काल पाकर वह अनाहत क्यो हुई ? उसका प्रचार इतना न्यून