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किन्तु निम्नलिखित शब्द नितान्त श्रुति-कटु हो गये है——


संस्कृत
प्रियवयस्येन
वृद्ध
खलु
राजा
नव
जन
सलिल
उधाने
उपनिमंत्रितेन


प्रकृत
पिअवअस्सेण
बुड्ढा
क्खु
रणा
णव
जण
शलिल
उज्जाणे
उबणिमन्तिदेण


संस्कृत
बृद्धेन
कदानु
कुपितेन
पालकेन
मिब
योग्येन
पानीयै
उपबंध
स्त्रातोह


प्राकृत
बुड्टेण
कदाणु
कुबिदेण
पालयेण
बिअ
जोग्गेण
पाणिएहि
उबबण
हादेह

इन दोनो प्रकार के उद्धृत शब्दों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो गया कि प्राकृत में सस्कृत के यदि अनेक शब्द कर्कश से कोमल हो गये है, तो उच्चारण-विभिन्नता, जल-वायु और समय-स्रोत के प्रभाव से बहुत से शब्द कोमल बनने के स्थान पर परम कर्ण-कटु बन गये है। संस्कृत के न, द्ध, व, य इत्यादि के स्थान पर प्राकृत भाषा में ण, ड, ढ, ब, अ इत्यादि का प्रयोग उसको बहुत ही श्रुति-कटु कर देता है, और ऐसी अवस्था मे जिस युक्ति का उल्लेख किया गया है, वह केवल एकाश में मानी जा सकती है सर्वाश में नही। और जब यह युक्ति सर्वाश मे गृहीत नहीं हुई, तो जिस सिद्वान्त का प्रतिपादन मै ऊपर से करता आया हूँ वही निर्विवाद ज्ञात होता है, और हमको इस बात के स्वीकार करने के लिये बाध्य करता है कि प्राकृत भाषा से संस्कृत भाषा परुष नहीं है। तथापि राजशेखर जैसा वावदूक विद्वान् उसको प्राकृत से परुप बतलाता है, इसका क्या कारण है ?

मै समझता हूॅ इसके निम्नलिखित कारण है——