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प्रियप्रवास

कभी कभी क्रन्दन - घोर - नाद को।
विभेद होती श्रुति - गोचरा रही।
महा-सुरीली - ध्वनि श्याम वेणु की।
प्रदायिनी शान्ति विषाद - मर्दिनी ॥३५।।

व्यतीत यो ही घड़ियाँ कई हुई।
पुनः स - हिल्लोल हुई. पतंगजा।
प्रवाह उद्भदित अंत मे हुआ।
दिखा महा अद्भुत - दृश्य सामने ॥३६॥

कई फनो का अति ही भयावना।
महा - कदाकार अश्वेत - शैल सा।
बड़ा - बली एक फणीश अंक से।
कलिन्दजा के कढ़ता दिखा पड़ा ॥३७॥

विभीषणाकार - प्रचण्ड - पन्नगी।
कई बड़े - पन्नग, नाग साथ ही।
विदार के वक्ष विषाक्त - कुण्ड का।
प्रमत्त से थे कढ़ते शनैः शनैः ॥३८॥

फणीश शीशोपरि राजती रही।
सु - मूर्ति शोभा-मय श्री मुकुन्द की।
विकीर्णकारी कल - ज्योति - चक्षु थे।
अतीव - उत्फुल्ल मुखारविन्द था ॥३९॥

विचित्र थी शीश किरीट की प्रभा।
कसी हुई थी कटि मे सु - काछनी।
दुकूल से शोभित कान्त कन्ध था।
विलम्बिता थी वन - माल कण्ठ मे ॥४०॥