रही न जाने किस काल से लगी ।
व्रजापगा मे यह व्याधि - दुर्भगा ।
किया उसे दूर मुकुन्द देव ने ।
विमुक्ति सर्वस्व - कृपा - कटाक्ष से ॥१७॥
बढ़े दिवानायक की दुरन्तता ।
अनेक - ग्वाले सुरभी समूह ले ।
महा पिपासातुर एक बार हो ।
दिनेशजा वर्जित कूल पै गये ॥१८॥
परन्तु पी के जल ज्यो स - धेनु वे ।
कलिन्दजा के उपकूल - से बढ़े ।
अचेत त्योही सुरभी समेत हो ।
जहाँ तहाँ भूतल - अंक मे गिरे ॥१९॥
कढ़े इसी ओर स्वयं इसी घड़ी ।
ब्रजांगना - वल्लभ दैव - योग से ।
वचा जिन्होने अति - यत्न से लिया ।
विनष्ट होते बहु - प्राणि - पुंज को ॥२०॥
दिनेशजा दूषित - वारि - पान से ।
विडम्बना थी यह हो गई यत ।
अत: इसी काल यथार्थ - रूप से ।
व्रजेन्द्र को ज्ञान हुआ फणीन्द्र का ॥२१॥
स्व - जाति की देख अतीव दुर्दशा ।
विगर्हणा. देख मनुष्य - मात्र की ।
विचार के प्राणि - समूह - कष्ट को ।
हुए समुत्तेजित वीर - केशरी ॥२२॥
पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२१२
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३९
एकादश सर्ग