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प्रियप्रवास

राका - स्वामी सरस - सुख की दिव्य-न्यारी-कलाये ।
धीरे धीरे पतित जब थी स्निग्धता साथ होती ।
तो आभा मे अतुल - छवि मे औ मनोहारिता मे ।
हो जाता सो अधिकतर था नन्दनोद्यान से भी ॥५२॥

ऐसा प्यारा - रुचिर रस से सिक्त उद्यान मेरा ।
मै होती हूँ व्यथित कहते आज है ध्वंस होता ।
सूखे जाते सकल - तरु है नष्ट होती लता है ।
निष्पुष्पा हो विपुल - मलिना वेलियाँ हो रही है ।।५३।।

प्यारे - पौधे कुसुम - कुल के -पुष्प ही है न लाते ।
भूले जाते विहग अपनी बोलियाँ है अनूठी ।
हा! जावेगा उजड़ अति. ही मंजु - उद्यान मेरा ।
जो सीचेगा न घन - तन आ स्नेह - सद्वारि - द्वारा ॥५४॥

ऊधो आदौ तिमिर - मय था भाग्य - आकाश मेरा ।
धीरे धीरे फिर वह हुआ स्वच्छ सत्कान्ति - शाली ।
ज्योतिर्माला - बलित उसमे चन्द्रमा एक न्यारा ।
राका श्री ले समुदित हुआ चित्त - उत्फुल्ल - कारी ॥५५॥

आभा - वाले उस गगन मे भाग्य दुर्वृत्तता की ।
काली काली अब फिर घटा है महा-घोर छाई ।
हा! आँखो से सु-विधु जिससे हो गया दूर मेरा ।
ऊधो कैसे यह दुख - मयी मेघ - माला - टलेगी ।।५६।।

फूले - नीले- वनज - दल सा गात का रंग - प्यारा ।
मीठी - मीठी मलिन मन की मोदिनी मंजु - बाते ।
सोधे - डूबी- अलक यदि है श्याम की याद आती ।
उधो मेरे हृदय पर तो सॉप है लोट जाता ॥५७॥