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दशम सर्ग

विनय से नय से भय से भरा ।
कथन ऊधव का मधु मे पगा ।
श्रवण थी करती बन उत्सुका ।
कलपती - कॅपती ब्रजपांगना ॥१०॥

निपट - नीरब - गेह न था हुआ ।
वरन हो वह भी बहु - मौन ही ।
श्रवण था करता बलवीर की ।
सुखकरी कथनीय गुणावली ॥११॥
मालिनी छन्द
निज मथित - कलेजे को व्यथा साथ थामे ।
कुछ समय यशोदा ने सुनी सर्व बाते ।
फिर बहु विमना हो व्यस्त हो कंपिता हो ।
निजे-सुअन-सखा से यो व्यथा-साथ बोली ॥१२॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
प्यासा प्राणी श्रवण करके वारि के नाम ही को ।
क्या होता है पुलकित कभी जो उसे पी न पावे ।
हो पाता है कब तरणि का नाम ही त्राण-कारी ।
नौका ही है शरण जल मे मग्न होते जनो की ॥१३॥

रोते रोते कुँवर - पथ को देखते देखते ही ।
मेरी ऑखे अहह अति ही ज्योति - हीना हुई है ।
कैसे ऊधो भव - तम हरी - ज्योति वे पा सकेगी ।
जो देखेगी न मृदु - मुखड़ा इन्दु - उन्माद - कारी ॥१४॥

सम्वादो से श्रवण - पुट भी पूर्ण से हो गये है ।
थोड़ा छूटा न अब उनमे स्थान सन्देश का है ।
साय प्राय प्रति - पल यही एक - वांछा उन्हे है ।
प्यारी - बाते मधुर - मुख की मुग्ध हो क्यो सुने वे ॥१५॥