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नवम सर्ग

रहे खिलाते पशु धेनु-दूहते।
प्रदीप जो थे गृह-मध्य बालते।
अधीर हो वे निज-कार्य्य त्याग के।
स-वेग दौड़े वदनेन्दु देखने॥१२६॥

निकालती जो जल कूप से रही।
स रज्जु सो भी तज कूप मे घड़ा।
अतीव हो आतुर दौड़ती गई।
ब्रजांगना-वल्लभ को विलोकने॥१२७॥

तजा किसीने जल से भरा घड़ा।
उसे किसीने शिर से गिरा दिया।
अनेक दौड़ी सुधि गात की गँवा।
सरोज सा सुन्दर श्याम देखने॥१२८॥

वयस्क बूढ़े पुर-बाल बालिका।
सभी समुत्कण्ठित औ अधीर हो।
स-वेग आये ढिग मंजु यान के।
स्व-लोचनो की निधि-चारु लूटने॥१२९॥

उमंग-डूबी अनुराग से भरी।
विलोक आती जनता समुत्सुका।
पुन उसे देख हुई प्रवचिता।
महा-मलीना विमनाति-कष्टिता॥१३०॥

अधीर होने हरि-बन्धु भी लगे।
तथापि वे छोड़ सके न धीर को।
स्व-यान को त्याग लगे प्रबोधने।
समागतो को अति-शांत भाव से॥१३१॥