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प्रियप्रवास

कहीं कपोती स्व - कपोत को लिये ।
विनोदिता हो करती विहार थी ।
कही सुनाती निज - कंत साथ थी ।
स्व - काकली को कल कंठ-कोकिला ॥९६॥

कही महा - प्रेमिक था पपीहरा ।
कथा - मयी थी नव शारिका कही ।
कहीं कला लोलुप थी चकोरिका ।
ललामता - आलय - लाल थे कही ।।९७॥

महा - कदाकार बड़े - भयावने ।
सुहावने सुन्दरता-निकेत से ।
वनस्थली मे पशु - वृन्द थे घने ।
अनेक लीला - मय औ लुभावने ॥९८॥

नितान्त-सारल्य - मयी - सुमूर्ति मे ।
मिली हुई कोमलता सु - लोमता ।
किसे नहीं थी करती विमोहिता ।
सदंगता - सुन्दरता - कुरंग की ।।९९।।

असेत - आँखे खनि-भूरि भाव की ।
सुगीत न्यारी - गति की मनोज्ञता ।
मनोहरा थी मृग - गात - माधुरी ।
सुधारियो अंकित नाति - पीतता ।।१००।।

असेत - रक्तानन - वान ऊधमी ।
प्रलम्ब - लांगूल विभिन्न - लोम के ।
कही महा- चंचल क्रूर कौशली ।
असंख्य - शाखा- मृग का समूह था ।।१०१।।