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प्रियप्रवास

योही आत्म प्रसंग श्याम - वषु ने प्यारे सखा से कहा ।
मर्यादा व्यवहार आदि ब्रज का पूरा बताया उन्हें ।
ऊधो ने सब को स-आदर सुना स्वीकार जाना किया ।
पीछे हो कर के विदा सुहृद से आये निजागार वे ॥१२।।

प्रातःकाल अपूर्व - यान मॅगवा औ साथ ले सूत को ।
ऊधो गोकुल को चले सदय हो स्नेहाम्बु से भीगते ।
वे आये जिस काल कान्त-ब्रज में देखा महा- मुग्ध हो ।
श्री वृन्दावन की मनोज्ञ - मधुरा श्यामायमाना - मही ॥१३॥

चूडाये जिसकी प्रशान्त - नभ में थीं दीखती दूर से ।
ऊधों को सु- पयोद के पटल सी सद्धूम की राशि सी ।
सो गोवर्धन श्रेष्ठ - शैल अधुना था सामने दृष्टि के ।
सत्पुष्पो सुफलो प्रशंसित द्रुमों से दिव्य साग हो ।।१४।।

ऊँचा शीश सहर्ष शैल कर के था देखता व्योम को ।
या होता अति ही स-गर्व वह था सर्वोच्चता दर्प से ।
या वार्ता यह था प्रसिद्ध करता सामोद संसार मे ।
मैं हूँ सुन्दर मान दण्ड ब्रज की शोभा-मयी-भूमि का ॥१५॥

पुष्पो से परिशोभमान बहुश' जो वृक्ष अंकस्थ थे ।
वे उद्घोषित थे सदर्प करते उत्फुल्लता मेरु की ।
या ऊँचा कर के स-पुष्प कर को फूले द्रुमो व्याज-से ।
श्री- पद्मा- पति के सरोज - पग को शैलेश था, पूजता ॥१६॥
 
नाना - निर्भर हो प्रसूत गिरि के संसिक्त उत्संग से ।
हो हो शब्दित थे सवेग गिरते अत्यन्त - सौंदर्य से ।
जो छीटे उड़ती अनन्त पथ में थी दृष्टि को मोहती ।
शोभा थी अति ही अपूर्व उनके उत्थान की, ‘पात' की ॥१५।‌।