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नवम सर्ग

शार्दूलविक्रीड़ित छन्द

एकाकी ब्रजदेव एक दिन थे बैठे हुए गेह मे।
उत्सन्ना ब्रजभूमि के स्मरण से उद्विग्नता थी बड़ी।
ऊधी-संज्ञक-ज्ञान-वृद्ध उनके जो एक सन्मित्र थे।
वे आये इस काल ही सदन मे आनन्द मे मग्न से॥१॥

आते ही मुख-म्लान देख हरि का वे दीर्घ-उत्कण्ठ हो।
बोले क्यो इतने मलीन प्रभु है? है वेदना कौन सी।
फूले-पुष्प-विमोहिनी-विचकता क्या हो गई आपकी।
क्यो है नीरसता प्रसार करती उत्फुल्ल-अभोज मे॥२॥

बोले वारिद-गात पास बिठला सम्मान से बन्धु को।
प्यारे सर्व-विधान ही नियति का व्यामोह से है भरा।
मेरे जीवन का प्रवाह पहले अत्यन्त-उन्मुक्त था।
पाता हूँ अब मै नितान्त उसको आबद्ध कर्तव्य मे॥३॥

शोभा-संभ्रम-शालिनी-ब्रज-धरा प्रेमास्पदा-गोपिका।
माता-प्रीतिमयी प्रतीति-प्रतिमा, वात्सल्य-धाता-पिता।
प्यारे गोप-कुमार, प्रेम-मणि के पाथोधि से गोप वे।
भूले है न, सदैव याद उनकी देती व्यथा है हमे॥

जी मे बात अनेक बार यह थी मेरे उठी मैं चलूँ।
प्यारी-भावमयी सु-भूमि ब्रज मे दो ही दिनो के लिये।
बीते मास कई परन्तु अब भी इच्छा न पूरी हुई।
नाना कार्य-कलाप की जटिलता होती गई वाधिका॥५॥