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अष्टम सर्ग

प्रात वेला यक दिन गई नन्द के सद्म में थी ।
बैंठी लीला महरि अपने लाल की देखती थी ।
न्यारी क्रीड़ा समुद करके श्याम थे मोद देते ।
होठो मे भी विलसित सिता मी हँसी मोहती थी ।।६६।

जयोही ऑखे मुझ पर पड़ीं प्यार के साथ बोली ।
देखो कैसा सँभल चलता लाडिला है तुम्हारा ।
क्रीड़ा मे है निपुण कितना है कलावान कैसा ।
पाके ऐसा वर सुअन मैं भाग्यमाना हुई हूँ ॥३७॥

होवेगा सो सुदिन जब मैं आँख से देख लूंगी ।
पूरी होती सकल अपने चित्त की कामनाये ।
व्याहुँगी मैं जब सुअन को औ मिलेगी वधूटी।
तो जानूंगी अमरपुर की सिद्धि है सद्म आई ॥६८।।

ऐसी बाते उमग कहती प्यार से थी यशोदा ।
होता जाता हृदय उनका उत्स आनद का था ।
हा ! ऐसे ही हृदय - तल मे शोक है आज छाया ।
गेऊॅ मैं या यह सब कहें या मरूँ क्या करूँ मैं ॥६९।।

यों ही वाते विविध कह कष्ट के साथ रो के ।
आवेगों से व्यथित वन के दु.ख से दग्ध हो के ।
सारे प्राणी ब्रज - अवनि के दर्शनाशा सहारे ।
प्यारे से हो पृथक, अपने बार को थे बिताते ।।७७।।

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