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करें, इस ग्रन्थ को मैं अत्यन्त सरल हिन्दी और प्रचलित छन्दो में लिख रहा हूँ।

मैंने ऊपर लिखा है कि "क्या 'रामचरितमानस' 'रामचंद्रिका' और 'विनयपत्रिका' से भी 'प्रियप्रवास' अधिक संस्कृत-गर्भित है," मेरे इस वाक्य से संभव है कि कुछ भ्रम उत्पन्न होवे, और यह समझा जावे कि मैं इन पूज्य ग्रन्थो के वन्दनीय ग्रन्थकारो से स्पर्धा कर रहा हूँ और अपने काँच की हीरक-खण्ड के साथ तुलना करने मे सयत्न हूँ। अतएव मैं यहाँ स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर देता हूँ कि मेरे उक्त वाक्य का मर्म्म केवल इतना ही है कि संस्कृत-शब्दों के बाहुल्य से कोई ग्रन्थ अनाहत नहीं हो सकता। यह और बात है कि संस्कृत-शब्दों का प्रयोग उचित रीति और चारु—रूपेण न हो सके, और इस कारण से कोई ग्रन्थ हास्यास्पद और निन्दनीय बन जावे।

कवितागत स्वारस्य

हिन्दी के कतिपय वर्त्तमान साहित्यसेवियो का यह भी विचार है कि खड़ी बोली में सरस और मनोहर कविता नहीं हो सकती। पूज्य पण्डितजी अपने उक्त भाषण में ही एक स्थान पर लिखते है:—

"खड़ी बोली की कविता पर हमारे लेखकों का समूह इस समय टूट पड़ा है। आज कल के पत्रों और मासिक-पत्रिकाओं में बहुत सी इस तरह की कवितायें छपी है, परन्तु इनमे अधिकतर ऐसी है जिनको कविता कहना ही कविता की मानो हँसी करना है, हमें तो काव्य के गुण इनमें बहुत कम जँचते हैं।"

"मेरे विचार में खड़ी बोली में एक इस प्रकार का कर्कशपन है कि कविता के काम में ला उसमें सरसता सम्पादन करना प्रतिभावान् के लिये भी कठिन है, तब तुकबन्दी करने वालो की कौन-कहे।"

इन सज्जनो का विचार यह है कि 'मधुर कोमलकांत पदावली'