पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१३६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६९
पष्ठ सर्ग

जाते जाते पहुँच मथुरा - धाम में उत्सुका हो ।
न्यारी - शोभा वर नगर की देखना मुग्ध होना ।
तू होवेगी चकित लग्न के मेरु से मन्दिरो को ।
आभावाले कलश जिनके दुसरे अर्क से हैं ॥४८॥

जी चाहे तो शिखर सम जो सर के हैं मुंडेरे ।
वॉ जा ऊँची 'अनुपम - ध्वजा अङ्क मे ले उडाना ।
प्रासादो मे अटन करना घूमना प्रांगणों में ।
उद्युक्ता हो सकल सुर से गेहू को देख जाना ॥४९॥

कुंजो वागों बिपिन यमुना कूल या आलयो में ।
सद्गधों से भरित मुख की वास सम्बन्ध से था ।
कोई भौंरा विकल करता हो किसी कामिनी को ।
तो सद्भावो सहित उसको ताडना दे भगाना ॥५०॥

तू पावेगी कुसुम गहने कान्तता साथ पैन्हे ।
उद्यानो में वर नगर के सुन्दरी मालिनो को ।
व कार्यों मे स्वप्रियतम के तुल्य ही लग्न होंगी ।
जो श्रान्ता हों सरस गति से तो उन्हे मोह लेना ।।५१।।

जो इच्छा हो सुरभि,तन के पुष्प सभार से ले ।
आते जाते स-रुचि उनके प्रीतमों को रिझाना ।
ऐ मर्मज्ञे रहित उससे युक्तियाँ सोच होना ।
जैसे जाना निकट प्रिय के व्योम-चुम्बी गृहो के ॥५२।।

देखे पूजा समय मथुरा मन्दिरों मध्य जाना ।
नाना वाद्यो मधुर-स्वर की मुग्धता को बढाना ।
किम्बा ले के रुचिर तरु के शब्दकारी फलों को ।
धीरे धीरे मधुर-रव से मुग्ध हो हो बजाना ॥५३॥