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प्रियप्रवास

आना प्यारे माग्मुन का देखने के लिये ही ।
कोसो जाती-प्रतिदिन चली गली उन्मुकों की।
ऊँचे ऊचँ तरू पर चढ़े गोप डोटे अनको ।
घंटों बैठे तृषित हग में पंथ को देखने थे।॥६॥

आके बैठी निज सदन की मुक्त ऊँची छतो में।
शखो में औ पथ पर बने दिव्य वातायनो में।
चिन्ता मग्ना विवश विकला उन्मना नारियों को।
की आँखें सहन बन के देखती पथ की थी ॥७॥

आके कागा यदि सदन में बैठना था कही भी।
तो तन्यगी उस सदन की यो उसे थी सुनाती।
जो पाते हो धुवर कारु ता बैठ जात ।
में खाने को प्रतिदिन तुझ दुध और भात दुंगी ॥८॥

आता कोई मनुज मथुरा और मे जो दिखाता ।
नाना वाते सदुम्ब उससे पूछते तो सभी थे।
यो ही जाता पथिक मथुरा पोर भी जो जनाता।
तो लाग्यो ही नकल उससे भेजते थे सेंदेसे ॥९॥

फुलों पत्ती सकल तरुयों औ लता बेलियो से।
आवासो से ब्रज प्रवनि से पंथ की रेणुओ से।
होती सी थी यह ध्वनि सदा कुज से काननो से।
मेरे प्यारे कुंवर अव भी क्यों नहीं गेह आये ॥१०॥

मालिनी छन्द
यदि दिन कट जाता बीतती थी न दोपा।
यदि निशि टलती थी वार था कल्प होता।
पल पल अकुलाती ऊवती थी यशोदा ।
रट यह रहती थी क्यो नही श्याम आये ॥११॥