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पञ्चम सर्ग

जो आती थी पथरज उड़ी सामने टाप द्वारा ।
बोली जाके निकट उसके भ्रान्त सी एक बाला ।
क्यो होती है भ्रमित इतनी धूलि क्यो क्षिप्त तू है ।
क्या तू भी है विचलित हुई श्याम से भिन्न हो के ॥७१॥

आ आ, आके लग हृदय से लोचनो मे समा जा ।
मेरे अंगो पर पतित हो बात मेरी बना जा ।
मै पाती हूँ सुख रज तुझे आज छूके करो से ।
तू आती है प्रिय निकट से कुन्ति मेरी मिटा जा ।।७२।।

रत्नो वाले मुकुट पर जा बैठती दिव्य होती ।
जो छा जाती अलक पर तू तो छटा मंजु पाती ।
धूली तू है। निपट मुझ सी भाग्यहीना मलीना ।
आभा वाले कमल-पग से जो नहीं जा लगी तू ।।७३।।

जो तू जाके विशद रथ में बैठ जाती कही भी ।
किम्बा तू जो युगल तुरगो के तनो मे समाती ।
तो तू जाती प्रिय स्वजन के साथ ही शान्ति पाती ।
यो हो हो के भ्रमित मुझ सी भ्रान्त कैसे दिखाती ।।७४।।

हा! मैं कैसे निज हृदय की वेदना को बताऊँ ।
मेरे जी को मनुज तन से ग्लानि सी हो रही है ।
जो मैं होती तुरग अथवा यान ही या ध्वजा ही ।
तो मैं जाती कुँवर वर के साथ क्यो कष्ट पाती ॥७५॥

बोली बाला अपर अकुला हा! सखी क्या कहूँ मैं ।
आँखो से तो अब रथ ध्वजा भी नहीं है दिखाती ।
है धूली ही गगन - तल मे अल्प उड्डीयमाना ।
हा! उन्मत्ते! नयन भर तू देख ले धूलि ही को ॥७६।।