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प्रियप्रवास

फूलो पत्तो सकल पर है वारि बूँदे दिखाती ।
रोते है या विटप सब यो आँसुओ को दिखा के ।
रोई थी जो रजनि दुख से नंद की कामिनी के ।
ये बूंदें है, निपतित हुई या उसीके दृगो से ।।५।।

पत्रो पुष्पो सहित तरु की डालियाँ औ लताये ।
भीगी सी थी विपुल जल मे वारि-बूँदो भरी थी ।
मानो फूटी सकल तन मे शोक की अश्रुधारा ।
सर्वागो से निकल उनको सिक्तता दे वही थी ॥६॥

धीरे धीरे पवन ढिग जा फूलवाले द्रुमो के ।
शाखाओ से कुसुम - चय को थी धरा पै गिराती ।
मानो यो थी हरण करती फुल्लता पादपो की ।
जो थी प्यारी न व्रज-जन को आज न्यारी व्यथासे ।। ७ ॥

फूलो का यो अवनि-तल मे देख के पात होना ।
ऐसी भी थी हृदय-तल मे कल्पना आज होती ।
फूले फूले कुसुम अपने अक मे से गिरा के ।
बारी बारी सकल तरु भी खिन्नता है दिखाते ॥८॥

नीची ऊंँची सरित सर की बीचियाँ ओस बूँदे ।
न्यारी आभा बहन करती भानु की अंक मे थी ।
माना यो वे हृदय-तल के ताप को थी दिखाती ।
या दावा थी व्यथित उर मे दीप्तिमाना दुखो की ॥९॥

सारा नीला-सलिल सरि का शोक-छाया पगा था ।
कजो मे से मधुप कढ़ के घूमते थे भ्रमे से ।
मानो खोटी-विरह - घटिका सामने देख के ही ।
कोई भी थी अवनत - मुखी कान्तिहीना मलीना ॥१०॥