पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१०९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रियप्रवास

सब सुखाकर श्रीवृषभानुजा ।
सदन-सज्जित-शोभन-स्वर्ग सा ।
तुरत ही दुख के लवलेश से ।
मलिन शोकनिमज्जित हो गया ॥२४॥

जब हुई श्रुति - गोचर सूचना ।
ब्रज धराधिप तात प्रयाण की ।
उस घड़ी ब्रज - वल्लभ प्रेमिका ।
निकट थी प्रथिता. ललिता सखी ॥२५॥

विकसिता-कलिका हिमपात से ।
तुरत ज्यो बनती अति म्लान है ।
सुन प्रसंग मुकुन्द प्रवास का ।
मलिन त्यो वृषभानुसुता हुईं ॥२६॥

नयन से बरसा कर वारि को ।
बन गई पहले बहु बावली ।
निज सखी ललिता मुख देख के ।
दुखकथा फिर यो कहने लगी ॥२७॥

मालिनी छन्द
कल कुवलयो के से नेत्रवाले रसीले ।
वररचिते फेबीले पीत कौशेय शोभी ।
गुणगण मणिमाली मंजुभाषी सजीले ।
वह परम छबीले लाडिले नन्दजी के ॥२८॥

यदि कल मथुरा को प्रात ही जा रहे है ।
विन मुख अवलोके प्राण कैसे रहेगे ।
युग सम घटिकाये बार की बीतती थी ।
सखि! दिवस हमारे बीत कैसे सकेगे ॥२९॥