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तृतीय सर्ग

अधिक और निवेदन नाथ से ।
कर नहीं सकती यह किंकरी ।
गति न है करुणाकर से छिपी ।
हृदय की मन की मम - प्राण की ।।८४।।

विनय या करती ब्रजपांगना ।
नयन से बहती जलधार थी ।
विकलतावश वस्त्र हटा हटा ।
वदन थी सुत का अवलोकती ॥८५।।

गार्दूलविक्रीडित छन्द
ज्यो ज्यो थी रजनी व्यतीत करती औं देखती व्योम को ।
त्यों ही त्यो उनका प्रगाढ दुख भी दुर्दान्त था हो रहा ।
आँखो से अविराम अश्नु वह के था शान्ति देता नहीं ।
बारम्बार अशक्त - कृष्ण - जननी थी मूर्छिता हो रही ।।८६।।

द्रुतविलम्बित् छन्द
विकलता उनकी अवलोक के ।
रजनि भी करती अनुताप थी ।
निपट नीरव ही मिप ओस के ।
नयन से गिरता बहु - वारि था ॥८७॥

विपुल - नीर वहा कर नेत्र से ।
मिप कलिन्द - कुमारि - प्रवाह के ।
परम - कातर हो रह मौन ही ।
रुदन थी करती ब्रज की धरा ।।८८।।

युग बने सकती न व्यतीत हो ।
अप्रिय था उसका क्षण बीतना ।
विकट थी जननी धृति के लिये ।
दुखभरी यह घोर विभावरी ।।८९।।

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