बौद्धाचार्य शीलभद्र एक समय था जब भारतवर्ष के बड़े-बडे विद्वान् चीन, लका और तिब्बत श्रादि देशों में जाकर विद्या और धर्म की शिक्षा देते थे। एक यह समय है कि हमी को अन्यान्य देशो में जाकर विद्योपार्जन करना पड़ता है । विदेशी धर्माचार्य श्राव हमें यह उपदेश देने धाते हैं कि तुम्हारा धर्म निःसार है, हमारे धर्म को स्वीकार करने ही से तुम्हे मुक्ति मिलेगी। खैर, इसका कुछ रज नहीं, उत्थान और पतन सबके पीछे लगा हुश्रा है। रज इस बात का है कि हम अपने पूर्वजा की कीर्ति को, पांडित्य को, पराकम को बिलकुल ही भूल गये हैं। उसका स्मरण तक हमें नहीं । हम यह भी नहीं जानते कि चीन ऐसे सभ्य देश के पडित हमारे पूर्वजों के चरणों पर मस्तक रखने और उनसे विद्या धर्म सीखने छाते थे। इन बातों के जानने के कुछ तो साधन कम रह गये है, कुछ हम लोगों में उनके जानने की प्रवृत्ति ही कम है। इसी से शीलभद्र ऐसे प्रख्यात पडित का नाम तक लोग भूल गये थे। चीन से जो प्रवासी इस देश में आये थे उनके नयों से इस अद्वितीय विद्वान् के विषय में बहुत-सी बाते जानी गई हैं। उनके तथा दो एक यौद्ध ग्रथों के आधार पर
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