प्राचीन पडित और कवि कठोर वाणों से पीड़ा पहुँचाने लगा, गुणवान् राजा के समान शृंगार-रस ने ऊंची प्रतिष्ठा पाई,और नवला कामिनी की लज्जा के समान रात्रि ने कम-क्रम से कृशता स्वीकार की, अर्थात् छोटा होना प्रारंभ किया। देखिए, कैसी मनोहर उपमाओं के द्वारा, कैसी सरल रीति से, लोलिवराज न वसंत का श्रागमन वर्णन किया है। इनकी उपमाएँ प्राय बहुत अच्छी हैं। हरिविलास से शरवर्णन का एक श्लोक हम और उद्धृत करते है- वृद्धाङ्गनेव विजहौ सरिदुद्धतत्वं, वेदान्तिनामिज मत शुचि नीरमासीत् । चद्रे प्रभा युवतियक्त इवाद्भुताभू- द्विद्वत्कवित्वमिव फेकिरुतं न रेजे। वृद्ध स्त्री के समान नदियों ने अपनी उद्धतता छोड़ दी, वेदांतियों के मत के समान जल स्वच्छ हो गया, कामिनी के मुखमंडल के समान चद्रमा अधिक शोभायमान टुश्रा, और विद्वानों की कविता के समान मोरों की फेका अरोचक हुई। इस पथ के चाये चरण में लोलिंगराज ने एक अमूल्य बात कही है। सच है, विद्वान् होने से ही कोई कवि नहीं हो जाता । यदि उसमें कवित्व-शक्ति का स्वाभाविक चीज नहीं, तो मनुष्य चाहे जितना उड्ड विद्वान् हो, उसकी कविता कदापि लरत भोर मनोहारिणी नहीं होती। रस ही फनिता का प्राण है और जो यथार्थ कवि है उसकी कविता
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प्राचीन पंडित और कवि